गुरुवार, 20 नवंबर 2008
किसको दिखाऊ हाल-ऐ-दिल
बिना घुमे ही शहर और बाजारिया
प्रभु तुम मेरी रक्षा करना
बिना पानी के हो गया है आटा गिल
किसको सुनाऊं हाल-ऐ-दिल ।
सोमवार, 20 अक्तूबर 2008
नालायक की नसीहत और दर्द
गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008
एक प्रयास, बच्चों द्वारा, सबके लिए..........
आरा, भोजपुर , बिहार की एक अग्रणी संस्था यवनिका एक अनोखी बाल पत्रिका का प्रकाशन करने जा रही है। ये बाल पत्रिका इस मायने में अनोखी होगी की इसमे संपादन से लेकर रिपोर्टिंग तक का कार्य बच्चें ही करेंगे । सामान्य तौर पर हम बड़े आपने विचारों को बच्चों पर थोप देते हैं। वर्तमान की सारी बाल पत्रिकाएं इसी लिक पर चलती हैं, पर ये बाल पत्रिका बच्चों की नज़र से इस दुनिया को देखने की एक कोशिश हैं। ये पत्रिका बच्चों में पारम्परिक अध्ययन के अलावा लिखने, पढने, और सोचने की महत्वाकांक्षा को विकसित करने का एक प्रयास है। जैसा की नाम से ही प्रतीत होगा। इस पत्रिका का नाम है- '' आईना ''साक्षात्कार समाज का।
इतना ही नही यवनिका संस्था बच्चों को लेकर एक प्रोग्राम कराती है '' भोजपुर बाल महोत्सव '' जो इसी माह से शुरू होगा ।
इस कार्यक्रम में जिले से लगभग ७०००-८००० बच्चें भाग लेते हैं । पिछले ५ वर्षो में ये कार्यक्रम भोजपुर जिले में अपनी अलग पहचान बच्चों के बीच बना चुकी है। बच्चों को आपके आशीर्वाद aur hamko आपके सहयोग की आवश्य्कता है।
मंगलवार, 30 सितंबर 2008
ईद एवं नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएं
ईद एवं नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएं । सभी सुधि पाठक एवं ब्लॉगर भाइयों के घर शान्ति, शक्ति, सम्पति स्वरुप, सयम सादगी, सफलता, समृधि, संस्कार, सम्मान, स्वस्थ्य सरसवती आप सब के साथ हो। एक बार फ़िर नवरात्री की हार्दिक शुभकामनायें।
गुरुवार, 25 सितंबर 2008
क्यों उठाते हैं कलाकार कष्ट
यूँ तो कलाकारों को हमेशा ही कष्ट भोगना पड़ता है, और कलाकार कलाकार ही होता हैं जो समाज सुधर करने चलता है और समाज इस कदर प्रताडित करता हैउसे अपने कलाकार होने से घृणा होने लगती है। मैं भी एक कलाकार हू। पहले था नही अब बना हू । रंग मंच पर एक दो ही नाटक कियाहै और कलाकारों के बारे में जान कर मन में काफी दुःख होता। किस कदर कलाकारों की जिन्दगी संघर्ष से सुरु होकर संघर्ष में ही ख़तम हो जाती है।घर और समाज इस से अछूता नही हैं। घर में परिवार वाले कहते हैं की देख नचनिया बजनिया बनी इ इ इ । समाज में लोग कहते हैं की काम धाम नइखे कमाए के आच्छा धंधा अपना लेले बा ।इतना सब कुछ होने के बाद भी कलाकार नीलकंठ के सामान सब कुछ पी जाता है और समाज को उसकी कमी को दिखता हैं । समाज देखता हैं और कुछ देर बाद भूल जाता है । यदि प्रस्तुति आच्छी हुई तो थोडी देर वाहवाह उसके बाद ताना देना शुरू कर देते हैं लोग।कलाकारों के अंदर कोई नही देखता की उसके अन्दर भी एक आदमियत है उसके अन्दर भावना है। छोटे शहरो में तो काफी ख़राब स्थिति है। रंगमंच पर अगर कुछ करना है तो कोई कलाकारों को मदद को आगे नही आता । ५०० रु० का डौगी मुर्गा खा सकता है पर ५० रु० नाटक करने को लोग नही दे सकते।काफी कुछ सहना पड़ता है फ़िर भी मुस्कुराना पड़ता है। अभी मात्र चार सालों से ही इस क्षेत्र में हूँ इस दौरान कुछ आच्छा अनुभव नही रहा है मुझे । कभी कभी तो इतनी प्रशंशा मिलती है की मन में काफी जोश भर जाता है । जिसके बदौलत आज भी रंगमंच पर काफी कुछ करने मन होता है पर सबसे बड़ी समस्या वही होती ही धन की जो एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से आने वाला कलाकार कभी पुरा नही कर सकता है। हर कलाकार की कमजोरी होती है रंगमंच । मैं क्या लिखू समझ में नही आ रहा है । फ़िर भी कलाकार होने का दंश झेलना ही पड़ेगा मुझे । सारे रंगकर्मियों को सादर प्रणाम करते हुए दिल से लिखे इस पोस्ट को अब समाप्त कर रहा हू । आप सबों का प्यार, दुलार , स्नेह , आशीर्वाद मुझे इस क्षेत्र से जोड़े रख सकता हैं कृपया हिम्मत दे। dhanyawad।
शनिवार, 6 सितंबर 2008
मातम मौत का .....?
मातम है मौत का , अफ्शोश सभी हैं जता रहें है ,
कितना बुरा हुआ है , मिडिया वाले बता रहें है
डूबा है घर जिनका , पूछो हालत उनकी
कितनी असीम धैर्य है उनमे , वो सबको दिखा रहे है ।
हे भगवन शक्ति दो उनको इस बिपदा से लड़ने की
हम सब भी हिम्मत दे उनको बात नही है डरने की
महाविनाश की इस बेला में भगवन भी कितना सता रहे है
बाढ़ पीडितों को न्यूज़ में देख कर आंदोलित हुए मन का भावः ...........
गुरुवार, 28 अगस्त 2008
आरा यानि भोजपुर की एतिहासिकता
भोजपुरी के शेकश्पियर भिखारी ठाकुर
angaregi shashan में आरा का bishesh mahatav रहा है। जार्ज पंचम का जब आरा darbar हुआ था तो उनके लिए ramna maidan से sate एक charch का nirman karaya गया था ।
सन १८५७ में जब देश के सभी जगहों पर स्वंत्रता संग्राम का बिगुल फुका गया था तब बीर बकुडा बाबु कुंवर सिंह ने यही से नेतृत्व करके अंगरेजी हुकूमत के खिलाफ जंग का एलान किया। बाबु कुंवर सिंह आरा से २५ किलोमीटर पश्चिम जगदीश पुर के रहनेवाले थे। कहा जाता हैं की कुंवर सिंह ने आरा से जगदीशपुर सुरक्षित जाने के लिए एक सुरंग का निर्माण करवाया था। आज भी यह सुरंग मृत अवस्था में महाराजा कालेज में बिधामान है आरा का बाबु बाज़ार कुंवर सिंह के स्मृती का श्रेष्ट उधाहरण हैं। आरा के साहित्यिक गतिविधियों के क्या कहने? दिल्ली , इलाहबाद, काशी में भी यहाँ की तूती बोलती थी और हैं। यहाँ के कथाकार लेखक , साहित्यासृजक पहले और आज आपनी और अपनी इस भूमि की पहचान रास्ट्रीय स्तर पर बना चुनके हैं। यहाँ के साहित्यिक लाल शिव नन्दन सहाय , आचार्य शिव पूजन सहाय, राजा राधिकारमण , हवालदार त्रिपाठी , सकल देव नारायण शर्मा को कौन हिन्दी पाठक नहीं जनता होगा। भोजपुर लोक कथा और लोक गायन का एक प्रमुख केन्द्र रहा हैं। भोजपुरी के शेकश्पियर भिखारी ठाकुर को भोजपुरी भाषा- भाषी क्षेत्र का कौन नही जनता है। जिनकी रचना भोजपुरी भाइयों के नस-नस में बसी हुई हैं। बिदेशिया , गबरघिचोर बेटी-बचवा अनेक नाटको के मध्यम से जन जाग्रति फैलाने का काम किया हैं. महादेव सिंह को कौन भुला सकता है। जिन्होंने सोरठी ब्रिजभार , नयाकावा और लोरिकायन को रच कर भोजपुरी को नई दिशा दी हैं। महेंद्र मिशिर भोजपुरी पुरबी का एक अमर नाम हैं ।
पढ़ कर कृपया हौशलाअफजाई करें ........ कैसी रही ये आरा यानि भोजपुर के बारे में कुछ बिशेष .....
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
आरा पर एक नज़र
तो शुरू करतें हैं...........
अगर प्रुराने ज़माने के ग्राम देवताओं और नगर देवताओं की मान्यातएं आज भी मान्य होती तो आरा के बारे में में इतना तो कहूँगा की इसको बनाने वाले जरूर कोई रोमांटिक कलाकार रहें होंगे जो इसके दामन में रंग बिरंगे डोरे डालें । जहाँ सुबह सुनहरी तो शाम मलयजी होती हैं । इसकी रंगिनिया, इसकी हरियाली , ऊँचे ऊँचे भवन , मनभावन उद्यान , एतिहासिकता से परिपूर्ण , धरम में आस्था क्या कुछ नहीं हैं इस छोटे से शहर में । एक से बढ़कर एक वीर इसके दामन में भरे पड़े हैं । जहाँ की भाषा भोजपुरी हैं जहाँ के रग-रग में देशभक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा पड़ा हैं । सभ्यता संस्कृति की अपनी अलग पहचान लिए आरा बिहार के भोजपुर जिला का हृदय अस्थाली है । भारत का मुख्य पहचान अनेकता में एकता यहाँ की बिशेषता हैं । यहाँ की उर्वरता इतनी हैं की अनेक नेता कवि स्वतंत्रता सेनानी न जाने कितनो ने आरा की पहचान विश्व पटल बनाईं हैं ।
अभी तो बहुत कुछ बाकि हैं बहुत जल्द मिलते हैं ........................
बुधवार, 6 अगस्त 2008
सास के मायके सातो धाम
सोमवार, 4 अगस्त 2008
मन्दिर में मानवता शर्मशार
आज सुबह-२ जब मैंने अख़बार खोला तो अख़बार के प्रथम पृष्ट पर मानवता को शर्मशार क्र देने वाली घटना ने मुझे आंदोलित कर के रख दिया। सोचा क्यों न मन की भावनाओ को लिखा जाय। घटना बिहार के गोपाल गंज जिले की हैं। वहां पर रुपये ले करभाग रहे चोर को पब्लिक ने कानून के रखवालो के सामने इतनी बुरी तरह से पीटा की वो अधमरा हो गया। वो भी मन्दिर के खम्भे से बाँध कर । मानवों की मानवता इस कदर हो जायेगी ये सोच कर मन आंदोलित हो गया। ख़बरों के मुताबिक एक आदमी सिवान से गोपालगंज किसी काम से २०००० रुपए लेकर आया था दो चोर बैग को छीन कर भागने लगें बैग मालिक द्वारा शोर मचाने पर भाग रहे चोरों को पकड़ने के लिए कुछ आदमी दौडे एक चोर को पकड़ लिया और पास के मन्दिर के खम्भों में बाँध कर मरने लगें । वहीँ पुलिस मूकदर्शक बनी देखती रही। उस अधमरे चोर को जब पब्लिक ने छोड़ दिया तो पुलिस उसको थाने में ले कर आई। रुपए लेकर चोर भाग चुका था। पकड़ा गया चोर अपनी किस्मत को कोष ही रहा होगा । कानून पुलिस क्या भीड़ के सामने लाचार थी या पुलिस द्वारा चोर को सुधरने का नायब तरीका था। खैर जो भी हो कानून के रक्षको के सामने मन्दिर में मानवता तो शर्मशार हो ही गई।
फ़िर वही बात हो गई ''खाया पिया कुछ नहीं गिलास तोडा चार आना''
गुरुवार, 31 जुलाई 2008
छोटी छोटी लेकिन मोटी बातें
किसी की लाश फूलों से सजी है
चलने वालों जरा संभल के चलो
ना जाने किस मोड़ पर मौत खड़ी हैं।
ये पंक्तियाँ ट्रक के पीछे लिखी हुई थी। इन पंक्तियों पर कितने लोग अमल करतें हैं, यह तो बताना मुस्किल है लेकिन लगभग सभी लोग पढ़ते जरुर हैं। मैं सड़क के किनारे बैठा कुछ सोच बिचार कर रहा था। गावों में आज भी शाम के वक्त टहलने के लिए खेतों खलिहानों और सड़को पर निकलतें हैं। मैं चुकी कस्बाई शहर में रहकर पढ़ाई करता हूँ । छुट्टी के दिनों में गाव गया था , मैं चिंतन मनन काफी करता हूँ और चिंतन मनन करने के क्रम में अचानक मेरी नज़र सड़क पर जाती हुई ट्रक पर पड़ी । पंक्तियाँ मुझे काफी चिंतन करने योग्य लगी । मैंने आव देखा न ताव पेन और कागज निकाल कर उसे लिख लिया। मेरी पुराणी बिचार यात्रा झट रुक गई और इन नै पंक्तियों को लेकर बिचारों की एक नई यात्रा प्रारम्भ कर दी। मैं सोचता रहा की जिसने भी इस पंक्तियों को लिखा होगा या ये पंक्तिया जिसकी भी सोच की उपज होगी इन चार पंक्तियों में सारा कुछ कह गया। दूसरी तरफ़ मैं ये भी सोचता रहा की अपनी गाड़ी के पीछे लिखवा कर ड्राईवर कितने लोगों को सिख दे रहा है। लेकिन क्या वो इनपर अमल करता होगा?
खैर जो भी हो एक बात तो मैं भी सिख गया हूँ की सलाह दूसरो के लिए होता हैं अपने भले ही हम अमल करें या न करें। मैं भी कम नहीं हूँ ....... पर अपने बारे में '' शिकारी आएगा जाल बिछायेगा दाना डालेगा उसमें फसना मत''
*कैसा लगा अपना राय जरुर दे
गुरुवार, 24 जुलाई 2008
दीदी ??????????????...........................
मेरे मन में एक सवाल कौधता हैं की क्या दुनिया में लोग कभी शान्ति से नहीं रह सकतें हैं ? मन में क्यों दुबिधा रहती हैं? लोग क्यों नहीं मेरे भावनाओ को समझते ? क्या दुनिया इसी तरह रहती हैं? ?????????????????????????????????????????????????????????? समझ नहीं आता क्या करू ।
मैं अपनी दीदी को काफी मानता हूँ समझ में नहीं आता क्या करू मुझे क्यों लगता हैं की दीदी मुझे नहीं मानती हैं। क्या मैं किसी का कभी प्यारा भाई नहीं बन सकता? इधर कुछ महीनो से मैं काफी परेशां हूँ । कारणसिर्फ़ इतना हैं की मेरी दीदी मीडिया में है और ऑफिस में जाती है और समस्या यह है की मैं वर्क टाइम में दीदी के पास फोन नहीं कर सकता । सप्ताह में सिर्फ़ एक दिन बचता हैं रविवार जिस दिन मैं उनसे बात कर सकता था ....... यहाँ था इस लिए की वो समय था जब मैं दीदी के पास फोन करता था। उस समय दीदी बात भी करती थी। लेकिन इधर कुछ महीनो से मैं जब भी उनके पास फोन करता वो या तो डाट देती या फ़ोन रखने को बोल देती। मैं क्या करू समझ में नही आता....................
मुझे इस बात का तनिक भी दुःख नहीं हैं की दीदी मुझे क्यूँ बोलती हैं । मैं समझ सकता हू ओफ्फिसिअल व्यस्तता बट मेरा मन तब से बेचैन हो गया जब उन्होंने मेरा फोन रखने को कहकर मेरे ही फोन से २२ मिनट ४८ सेकंड मेरे भाई निरंजन से बात की। मैं अपने मन को समझा नहीं पा रहा हूँ ॥
क्या मेरी दीदीकभी आएँगी। मैं अपनी वही दीदी से मिलना चाहता हूँ। मेरी दीदी कहा हैं आप ? कब प्यार से मुझे आप पुकारेंगी ???????? मेरा बच्चा ..............
मंगलवार, 13 मई 2008
मन
उम्मीद पर दुनिया टिकी हैं
देख निचे वालों को
संभाल अपने मन को
दरिद्र सिर्फ़ तू नहीं हैं
धन वाले भी गरीब हैं
निर्धन भी धनवान
चाह न झूठी शानो शौकत
कभी भी आ सकती हैं आफत
पलक झुका कर उठाने में
बदल सकती हैं भी दुनिया भी
नालायक सिर्फ़ मैं ही नहीं हू
नजर घुमा कर के तो देखो
नहीं दिखेगा अपना कोई
राम रची रखा वही होई
फ़िर क्यों कष्ट देता हैं तन को
देख निचे वाले को
और अब संभाल अपने मन को ।
सोमवार, 21 अप्रैल 2008
दो टूक बातें
फद्फद्य लौ एक बार बस खत्म हो गई राम कहानी।
नज़र बदल गयें, नज़ारें बदल गयें,
दिल दुनिया दवा दर्द और सितारें बदल गयें
देखा उन्होंने इस कदर की ,
चहुँ और के दिन हमारें बदल गयें।
हवाओ में खुशबु थी, खुन्नश थी मौत से,
बैर होती हैं औरत को अपनी सास , ननद और सौत से ।
दीया जलाये उम्मीद का बैठा रहा ,
रस्सी जल गई पर यू ही एठा रहा ।
दिखावे पर तुम क्यों जाते हो दोस्त,
मोटी तो हरदम गहरे पानी पैठा रहा।
शनिवार, 19 अप्रैल 2008
ललक शहर में जाने की
Get Free hi5 Glitters
हसरत पाले मन में था ,
सोचा चलूँ शहर की और
गावों से भी गन्दा हैं देश का सिरमौर
हसरत ,हसरत ही रह गया
मन में नफरत सिर्फ़ भरा रहा
देख! दरियादिली वहाँ का
मन में दर्द ही भरा रहा,
नफरत हर घर में है खड़ा
अपनापन का नाम नहीं हैं
बेईमानी जिद पर है अड़ा
जहा,
माँ की ममता बृद्धाआश्रम में
धनलोलुप पत्नी हैं मन में
भरी हुई इरिश्या जन जन में
है कौन रिश्ता निकटतम में
आपना भी कुछ दिखाऊंगा, देखूंगा उनका तौर
गावों से भी गन्दा हैं देश का सिरमौर
सारा देश अपना हैं फ़िर लगता क्योँ यह सपना हैं
मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008
भिखारी ठाकुर का बिदेशिया
भिखारी ठाकुर का बिदेशिया एक ऐसा नाटक हैं जो उनके ज़माने में तो प्रासंगिक था ही आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय । भिखारी ठाकुर का यह नाटक एक उत्क्रृष्ट रचना हैं । पुराने जमाने में लोग उनके नाटक को भिखारिया का नाच कहतें थें । जब भी जहाँ भी उनका नाच होना रहता था लोगो को पूर्व में ही पता लग जाता था । पुराने लोग आज भी कहतें हैं कि २०-२० कोस से लोग भिखारिया का नाच देखने के लिये आते थें । पहले जब भिखारी ठाकुर थें तब शायद भिखारी ठाकुर लोगों के बहुत प्रिय थें शायद इसी लिये लोग उनको प्रेम से ''भिखारिया'' कहतें थें।
बिदेशिया नाटक में जो मुख्य पात्र जो हैं उन सभी का आपना २ महत्व हैं नाटक के चार मुख्य पात्रों में बिदेशी को श्री कृष्ण के जैसा, बिदेशी के पत्नी को राधिका के जैसा , वहीं सुन्दरी को कुबड़ी, और बटोही को धर्म के रूप में भिखारी ठाकुर ने स्थान दिया है।
इनका नाटक बिदेशिया का कथा कुछ इस तरह हैं , कि नाटक का नायक बिदेशी नया -२ शादी करता हैं और अपनी पत्नी को छोड़ कर कमाने के लिये बिदेश यानी कलकत्ता चला जाता हैं और वहीं पर दूसरी शादी कर लेता हैं और अपनी गाँव कि पत्नी को भूल जाता हैं ।
इधर उसकी पत्नी अपने पति के वियोग में इतना ब्याकुल हो जाती हैं कि पागल के जैसा हो जाती हैं सभी से सिर्फ अपनी पति को वापस लाने के लिये कहती हैं । नाटक में बटोही का प्रवेश होता हैं और बटोही तैयार हो जाता हैं कलकता जाने के लिये और बेदिशी को वापस लाने के लिये ।
बटोही कलकत्ता जाता हैं और बिदेशी का ध्यान गावों कि तरफ खीचने में सफल हो जाता हैं दूसरी पत्नी कलकत्ते वाली का ध्यान बँटा कर बिदेशी को वापस गाव भेज देता हैं खैर बात कुछ भी हो पर बिदेशिया नाटक दर्शको को बंधने में पूरी तरह सफल हो जाता हैं
एक नज़र प्यारी और प्रियाम्बरा पर
यूं तो नाटक के कई पहलू होतें हैं। लेकिन भिखारी ठाकुर के बिदेशिया में दीदी के द्वारा प्यारी का किरदार और उनकी अभिनय क्षमता पूरे नाटक में जो जान डाला हैं उसके बारे में कुछ भी कहना छोटी मुह बड़ी बात होगी। दीदी का वो रोना दर्शको को रुलाना वियोग विरह दर्द क्या कुछ नहीं था अभिनय में। दुनिया में कलाकारों की कमी नहीं हैं लेकिन आपनी अभिनय क्षमता का को दिखाने की बात होगी और कोई नाम चुनने की बात कहेगा तो मैं आपनी दीदी को ही अपना आदर्श मानूँगा। कायल हो गया हूँ दीदी के अभिनय का ।आज भी नाटक का सीडी देखता हूँ तो मन नहीं भरता हैं। बिदेशी के याद में रोना बिलखना हमेशा मेरे जेहन में वो तस्वीर घूमती रहती हैं। आज के नाटक में दीदी ने प्यारी केफिर से जिंदा कर दिया हैं दीदी का करिश्माई अभिनय ही हैं की गावों की प्यारी को आपने अन्दर बैठा कर नाटक के मध्यम स्व दर्शकों को रोने पर मजबूर कर दिया । पता नहीं क्यों पर मुझे लगता हैं की मैं दीदी और प्यारी को कभी नहीं भूल शकता हूँ ।
रोहित
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
बिहारी होने का गर्व
अजीब निराली तेरी लीला,
दूर से क्यों देखता है मुझको
बिहारी होने का गर्व हर बिहारी को हैं । पिछले कुछ वर्षो के आकडे को छोड़ दिया जाये तो जिस तरह बिहारियों में आत्म विश्वास आया हैं वो काबिले तारीफ हैं । बिहार में विकास का स्तर जितनी तेजी से बढ़ा हैं , इस से लगता हैं कि वो दिन दूर नही जब बिहार देश के अगरनी राज्यों में गिना जाएगा । यादव राज के समाप्त होने के बाद सुशाशन जितने तेजी से बिहार को अर्श पर ला खड़ा किया हैं वो बिहारियों के लिये आत्म विश्वास बढ़ाने में काफी सहायक सिद्ध होगा। कहा भी जाता हैं कि आदि का अंत भी होता हैं और बिहार को जितना बदनाम होना था हो चूका हैं अब इसकी पहचान एक अलग तरह छवि के रुप में होगी ।
शुक्रवार, 25 जनवरी 2008
दीदी कि यादों में
भूल कर अपनों को दुनिया में खो गयें
आचानक ही मिलें थें हम आपसे, और हम
हमेशा के लिये आपके हो गयें
गम कुछ इस तरह उभारा दिल में
जख्म गहरा हुआ पर निशान मिट गयें
आपके यादों को छुपायें घूमते रहें जहाँ में
जाने का गम भी हंस कर पी गयें ।
सुन कर आवाज़ को आपके
दर्दे जुदाई भूल जाता हूँ
दिल में बैठी तस्वीर को देख कर
आपके पास होने का आह्सास पता हूँ
याद जो आपकी आई आपकी तो
घर छुप कर रो गयें
दीदी कि यादों में
रविवार, 20 जनवरी 2008
बचपन
मल कर चाय कि प्याली
सुख को जिसने देखा नही
कुदरत ने जिसके किस्मत में
दुःख दर्द गम ही डाली
फुटा नसीब उस वक़त बचपन का
पैदा हुआ जब इस धरा पर
दूध भी नही मिल सका जिसको
कोई क्या जाने इस बात को, कि
हुआ बड़ा, खा कर जूठन थाली , दुःख दर्द ..................
सड़क चौराहे पर कचरा चुन कर
करता कोशिश भूख मारने का
न कोई हसरत न कोई सपना
अपना नही इस जग में कोई
मर गया हैं जब बचपन समाज में
सुन समाज कि भद्दी गाली , कुदरत ने जिसके ...........
गुरुवार, 17 जनवरी 2008
रावण का शव
लोग भी बदल जायेंगे ,
खाली घड़ा अब निकल पड़ेगा .
सोमवार, 14 जनवरी 2008
यादें
शुक्रवार, 11 जनवरी 2008
जान हैं तो जहान हैं.
तेरा ही इमान हैं.
जख्म तो दिए दिल को,
फिर भी हम महान हैं
लोग खाते हैं अंडा
मरते हैं डंडा,
इसलिये तो कहता हूँ,
सभी अपने हमाम मे हैं नंगा.
दिल तो कह रहा हैं
दुनिया देख ली हमने
आओ आज तुमको घुमा दुं
क्या खोया, क्या पाया हमने