शनिवार, 19 अप्रैल 2008

ललक शहर में जाने की

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हसरत पाले मन में था ,
सोचा चलूँ शहर की और
गावों से भी गन्दा हैं देश का सिरमौर
हसरत ,हसरत ही रह गया
मन में नफरत सिर्फ़ भरा रहा
देख! दरियादिली वहाँ का
मन में दर्द ही भरा रहा,
नफरत हर घर में है खड़ा
अपनापन का नाम नहीं हैं
बेईमानी जिद पर है अड़ा
जहा,
माँ की ममता बृद्धाआश्रम में
धनलोलुप पत्नी हैं मन में
भरी हुई इरिश्या जन जन में
है कौन रिश्ता निकटतम में

आपना भी कुछ दिखाऊंगा, देखूंगा उनका तौर
गावों से भी गन्दा हैं देश का सिरमौर
सारा देश अपना हैं फ़िर लगता क्योँ यह सपना हैं

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